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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।

गरम ख़त : ठण्डा जवाब !


"गरमी खावै अपने को, नरमी खावै गैर को !"

यह मेरे पिताजी का फ़ार्मूला था।

“सौ गाली का एक गाला, मारी फूंक उड़ा।"

यह भी उन्हीं का वचन है।

एक दिन उनके पास जात-बिरादरी के एक चौधरी आये और आते न आते गरम होने लगे। मुझे अब याद नहीं कि क्या बात थी। पिताजी ने उनके पाँच-सात वाक्य सुने और तब सहज भाव से बोलो, “चलो भाई, बाँय के कुएँ पर चलें।"

अब जिस छोटी-सी बगीची का नाम बाँय का कुआँ पड़ गया है, वहाँ पहले एक वापी थी। अब वहाँ मृत्यु के बाद कर्मकाण्ड होता है और एक कोने में अखाड़ा है, जहाँ नगर के कुछ लोग कसरत-कुश्ती किया करते हैं। वहाँ चलने का निमन्त्रण उन्हें सहसा पिताजी ने दिया तो वे ऐसे चौंके, सोच में पड़े कि अपनी बात भूल गये।

अचकचाकर बोले, "क्या है बाँय के कुएँ पर?''

“अखाड़ा है।" पिताजी ने बहुत सादगी से कहा।

"तो फिर?"

"फिर क्या था ! तुम्हारा जी इस समय लड़ने को कर रहा है और मैं हो गया हूँ बूढ़ा, तो वहाँ इब्राहीम मिल जाएगा या तोता पहलवान; उनसे तुम्हारा जोड़ बँधवा दूंगा। बस तुम्हारी तसल्ली हो जाएगी और मेरा पीछा छूट जाएगा।"

सुनते ही उन्हें हँसी आ गयी और हँसते ही पिताजी ने चाय का गिलास उनके आगे किया। चाय की गरमी में मिल, उनकी गरमी उनके ही पेट में चली गयी तो वे लड़ते क्या?

माँ का स्वभाव गरम था। कभी वे बहुत तेज़ हो उठतीं तो पिताजी हँसकर कहते, “अच्छा सूर्पनखा की झाँकी फिर सजा लेना, इस समय तो काम की बात कर।" उनके कहने का ढंग ऐसा होता कि लपटें मुसकान में बदल जातीं।

एक दिन बोले, “जब दूसरा आदमी तुम्हारी तरफ़ जलता अंगारा फेंके तो क्या करोगे? गेंद की तरह उसे उचक लोगे तो तुम्हारा हाथ जलेगा या नहीं? अक्लमन्दी इस बात में है कि तुम उसकी सीध से हट जाओ। यही बात गुस्से की है।"

बात बस वहीं पूरी हो गयी, पर आगे चलकर जब मैं संस्कृत पाठशाला में पढ़ने गया तो इसने जीवन में मुझे एक उपयोगी नियम बनाने में बड़ी मदद की।

उस पाठशाला में एक विद्यार्थी था। बड़ी अजीब, ‘हॉबी' थी उसकी। वह सबको गालियाँ-भरी पर्चियाँ लिखा करता और उनके बदले में जब दूसरे भी लिखकर या ज़बानी उसे गालियाँ देते तो वह खूब हँसता, दूसरों की गालियों में रस लेता और उन्हें अपनी सफलता मानता।

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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